Horse-Trading: Indian politics in recent times

Horse-Trading

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Horse-Trading: Indian politics in recent times

हॉर्स ट्रेडिंग- एक अनैतिक, जटिल, चतुर सौदेबाजी जिसमें धोखेबाजी की तथा जोखिम की संभावना ज्यादा हो ऐसी खरीद-फरोख्त को और हॉर्स ट्रेडिंग कहा जाता है। हॉर्स ट्रेडिंग शब्द 1820 के आसपास प्रयोग में आया था,इसका अर्थ घोड़ों की ख़रीद-फरोख्त के लिए कुख्यात था।

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19वीं शताब्दी में इंग्लैंड में घोड़े के व्यापारी अपनी घोड़ों की अधिक कीमत, मूल्य को प्राप्त करने के लिए कुछ चालाकियां किया करते थे ताकि उन्हें घोड़े की अधिक कीमत मिल सके तथा वास्तविक खरीददार द्वारा उन घोड़ों की वास्तविक अक्षमताओं का पता करना मुश्किल हो जाता था इसलिए यह प्रक्रिया बहुत महत्वपूर्ण व चुनौती भरी होती थी तथा जोखिम अधिक होता था क्योंकि चालाकी अधिक होती थी इसलिए उसे अनैतिक माना गया था इसलिए समय के साथ-साथ और हॉर्स ट्रेडिंग शब्द अनैतिक व्यापार का पर्यायवाची बन गया है।

 

यह अक्सर लोकतांत्रिक संस्थाओं में विधायि निकायों में जब सांसद व विधायकों को अन्य पार्टी में शामिल होने क्रॉस वोटिंग करने पार्टी छोड़ने या बिना कारण बताए दल बदलने के लिए या उसके एवज में लोभ,लालच ,पैसा फायदा के लिए पार्टी छोड़ देते हैं या दल बदल लेते है तब उन लोगों की घटनाओं के लिए हॉर्स ट्रेडिंग शब्द का प्रयोग किया जाता है।

भारत में 1967 में हरियाणा राज्य के विधायक गयाराम केस से दलबदल का खेल शुरू हुआ जो अधिक महत्वाकाक्षाओ की वजह से सत्ता में आने और बने रहने हेतु सांसद विधायकों की खरीद-फरोख्त बढ़ती ही चली गई जो अब महामारी के रूप में फेल गई हैं।

यह अक्सर लोकतांत्रिक संस्थाओं में विधायि निकायों में जब सांसद व विधायकों को अन्य पार्टी में शामिल होने क्रॉस वोटिंग करने पार्टी छोड़ने या बिना कारण बताए दल बदलने के लिए या उसके एवज में लोभ, लालच ,पैसा फायदा के लिए पार्टी छोड़ देते हैं या दल बदल लेते है तब उन लोगों की घटनाओं के लिए हॉर्स ट्रेडिंग शब्द का प्रयोग किया जाता है।

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भारत में 1967 में हरियाणा राज्य के विधायक गयाराम केस से दलबदल का खेल शुरू हुआ जो अधिक महत्वाकाक्षाओ की वजह से सत्ता में आने और बने रहने हेतु सांसद विधायकों की खरीद-फरोख्त बढ़ती ही चली गई जो अब महामारी के रूप में फेल गई हैं।

दलबदल के कुछ बड़े मामले

  • 1967 : चौधरी चरण सिंह ने दलबदल कर उत्तर प्रदेश में पहली गैर        कांग्रेसी सरकार बनाई।
  • 2016: अरुणाचल प्रदेश में 43 विधायकों के दल बदल से कांग्रेस सरकार  का तख्तापलट।
  • 2017: मणिपुर में दलबदल से कांग्रेस सरकार का पतन।
  • 2019: कर्नाटक में 17 विधायकों के दलबदल से यूपीए सरकार गिरी।
  • 2020: मप्र में कांग्रेस से ज्योतिरादित्य सिंधिया ग्रुप के विधायकों की      बगावत से कांग्रेस सरकार का पतन।
  • 2020: राजस्थान में कांग्रेस से सचिन पायलट ग्रुप के लगभग 18          विधायकों ने बगावत का प्रयास कर सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार                गिराने का प्रयास किया।

Indian Politics : राजस्थान में हार्स ट्रेंडिंग और सियासी        संकट का पूरा मामला

जुलाई 2020 में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को आभास हुआ कि उनकी पार्टी के कुछ MLA को विरोधी पार्टी खरीद फरोख्त कर उनकी सरकार को अल्पमत में लाकर सरकार गिराने का षड्यन्त्र रचा जा रहा हैं तब मुख्यमंत्री ने तत्कालीन राजस्थान प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट समेत कुछ MLA के विरुद्ध राजद्रोह और आपराधिक षड्यंत्र की धाराओं में SOG में मुकदमा दर्ज कराया और इसके बाद SOG ने उनको पूछताछ हेतु नोटिस जारी किये।

जिसके बाद उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट अपने गुट के लगभग 18 से 20 MLA जिनमे सरकार के कुछ केबिनेट मंत्री सहित बगावत कर बाड़े बंदी में चले गये उस दौरान, कांग्रेस की ओर से इस मामले में मोदी सरकार में मंत्री और राजस्थान से बीजेपी नेता और केन्द्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने दलाल के माध्यम से सचिन पायलट गुट को खरीद फरोख्त करने का प्रयास किया।

इस सम्बन्ध में विधायकों की खरीद फरोख्त को लेकर गजेन्द्र सिंह शेखावत और पायलट गुट के वरिष्ठ MLA भंवरलाल शर्मा के मध्य बातचीत के कुछ ऑडियो भी वायरल हुए SOG ने इस बाबत एक दलाल को गिरफ्तार भी किया जिसने पायलट गुट को केन्द्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत से संपर्क कराया इस पूरे प्रकरण में दो FIR दर्ज हुई हैं तथा सचिन पायलट को उपमुख्यमंत्री पद तथा केबिनेट मंत्री एव प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटाया।

जिसके बाद लगभग 2 से 3 महीनों तक राजस्थान में सियासी उठापटक रही इस दौरान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी अपने बाकी MLA को पहले जयपुर में और बाद में जैसलमेर में बाड़ा बंदी में रखा बाद में कांग्रेस पार्टी अलाकमान ने इस मामले में दखल देकर पायलट गुट और गहलोत सरकार में सामंजस्य स्थापित किया और राजस्थान में हार्स ट्रेंडिंग से आये सियासी संकट को दूर किया और इस प्रकार राजस्थान के मुख्य मंत्री अशोक गहलोत अपनी सरकार बचने में सफल हुए।

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किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू (Kihoto Hollohan vs Zachillhu)

वर्ष 1993 के किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू वाद में उच्चतम न्यायालय ने फैसला देते हुए कहा था कि विधानसभा अध्यक्ष का निर्णय अंतिम नहीं होगा। विधानसभा अध्यक्ष का न्यायिक पुनरावलोकन किया जा सकता है। न्यायालय ने माना कि दसवीं अनुसूची के प्रावधान संसद और राज्य विधानसभाओं में निर्वाचित सदस्यों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन नहीं करते हैं। साथ ही ये संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 के तहत किसी तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन भी नहीं करते।

दल-बदल विरोधी कानून क्या है?

1985 में संविधान में 10वीं अनुसूची जोड़ी गई. ये संविधान में 52वाँ संशोधन था इसमें विधायकों और सांसदों के पार्टी बदलने पर लगाम लगाई गई. इसमें ये भी बताया गया कि दल-बदल के कारण इनकी सदस्यता भी ख़त्म हो सकती है।

  • अगर कोई विधायक ख़ुद ही अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है।
  • अगर कोई निर्वाचित विधायक पार्टी लाइन के ख़िलाफ़ जाता है।
  • अगर कोई विधायक पार्टी व्हिप के बावजूद मतदान नहीं करता है।
  • अगर कोई विधायक विधानसभा में अपनी पार्टी के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करता है।
  • संविधान की दसवीं अनुसूची में निहित शक्तियों के तहत विधान सभा अध्यक्ष फ़ैसला ले सकता है।
हार्स ट्रेंडिंग से सम्बंधित गठित विभिन्न समितियाँ

 दिनेश गोस्वामी समिति

वर्ष 1990 में चुनावी सुधारों को लेकर गठित दिनेश गोस्वामी समिति ने कहा था कि दल-बदल कानून के तहत प्रतिनिधियों को अयोग्य ठहराने का निर्णय चुनाव आयोग की सलाह पर राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा लिया जाना चाहिये।संबंधित सदन के मनोनीत सदस्यों को उस स्थिति में अयोग्य ठहराया जाना चाहिये यदि वे किसी भी समय किसी भी राजनीतिक दल में शामिल होते हैं।

विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट:

वर्ष 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में कहा था कि चुनाव से पूर्व दो या दो से अधिक पार्टियाँ यदि गठबंधन कर चुनाव लड़ती हैं तो दल-बदल विरोधी प्रावधानों में उस गठबंधन को ही एक पार्टी के तौर पर माना जाए।राजनीतिक दलों को व्हिप (Whip) केवल तभी जारी करनी चाहिये, जब सरकार की स्थिरता पर खतरा हो। जैसे-दल के पक्ष में वोट न देने या किसी भी पक्ष को वोट न देने की स्थिति में अयोग्य घोषित करने का आदेश।

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दल-बदल विरोधी कानून को भारत की नैतिक राजनीति में एक ऐतिहासिक कदम के रूप में देखा जाता है। इसी कानून ने देश में ‘आया राम, गया राम’ की राजनीति को समाप्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। हालाँकि विगत कुछ वर्षों से देश की राजनीति में इस कानून के अस्तित्व को कई बार चुनौती दी जा चुकी है।

वर्तमान में स्थिति यह है कि राजनीतिक दल स्वयं किसी महत्त्वपूर्ण निर्णय पर दल के अंदर लोकतांत्रिक तरीके से चर्चा नहीं कर रहे हैं और दल से संबंधित विभिन्न महत्त्वपूर्ण निर्णय सिर्फ शीर्ष के कुछ ही लोगों द्वारा लिये जा रहे हैं।आवश्यक है कि विभिन्न समितियों द्वारा दी गई सिफारिशों पर गंभीरता से विचार किया जाए और यदि आवश्यक हो तो उनमें सुधार कर उन्हें लागू किया जाए। दल-बदल विरोधी कानून में संशोधन कर उसके उल्लंघन पर अयोग्यता की अवधि को 6 साल या उससे अधिक किया जाना चाहिये, ताकि कानून को लेकर नेताओं के मन में डर बना रहे।

दल-बदल विरोधी कानून संसदीय प्रणाली में अनुशासन और सुशासन सुनिश्चित करने में अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है, लेकिन इसे परिष्कृत किये जाने की ज़रूरत है, ताकि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र सबसे बेहतरलोकतंत्र भी साबित हो सके।